नज़र का चश्मा: समस्त आवश्यक जानकारी और उसे पहनने का सही तरीका

एक स्वस्थ आँख कैसे काम करती है? पास और दूर की नज़र खराब क्यों होती हैं? नज़र का चश्मा इन दोषों को कैसे दूर करता है? क्यों कई बार नज़र का चश्मा लगाकर भी साफ नहीं दिखता? बाइफोकल और प्रोग्रेसिव चश्मे क्या होते हैं और कैसे काम करते हैं?

-गुरजेन्द्र सिंह विर्दी

नज़र के चश्मों को लेकर आपके मन में भी यदि इस प्रकार की शंकाएं हैं तो इस लेख में इनका निवारण बेहद सरल भाषा में किया गया है, आप पढ़ना जारी रखिए। सबसे पहले हम यह समझ लें कि एक स्वस्थ आँख क्या होती है, यह किस प्रकार देखती है, यह काम कैसे करती है।

स्वस्थ आँख यानी स्पष्ट देखने के लिए जिसे किसी बाहरी सहायता की आवश्यकता ना हो और हम बिना किसी परेशानी के पास की, दूर की सभी वस्तुओं को आसानी से देख सकें। एक समान्य आँख की कार्यप्रणाली को समझने के लिए आपको इसकी संरचना के बारे में मोटी-मोटी जानकारी होना आवश्यक है कि आँख एक गेंदनुमा संरचना है जिसके भीतर रोशनी पहुँचाने के लिए एक लेंस होता है जो कि इसमें से होकर गुज़रने वाली रोशनी को बॉल की भीतरी दीवार पर प्रोजेक्ट करता है, जिसे हम रेटिना कहते हैं। इसी रेटिना पर बनने वाली तस्वीर को मस्तिष्क पढ़ता है।

यह तस्वीर बिल्कुल स्पष्ट बने इसके लिए बहुत आवश्यक है कि आँख का लेंस स्वस्थ हो, उसमें पर्याप्त लचीलापन हो ताकि आवश्कतानुसार यह पतला या मोटा हो सके। जब पास की चीज देखनी हो, जैसे आप कोई किताब हाथ में लेकर पढ़ रहे हों या मोबाइल फोन की स्क्रीन देख रहे हों, उस समय आँख के लेंस तक आती हुई किरणें समानान्तर नहीं होतीं। इसलिए इन्हें रेटिना पर एक शार्प इमेज बनाने के लिए अधिक रेफ्रेक्शन की आवश्यकता होती है और इसके लिए एक स्वस्थ आँख का लचीला लेंस स्वत: ही मोटा हो जाता है।

वहीं दूसरी ओर जब आप दूर की चीज देख रहे हों जैसे सड़क के दूसरी ओर किसी व्यक्ति को देख रहे हों या दूर लगे किसी होर्डिंग आदि पर लिखा हुआ कुछ पढ़ रहे हों तो उस समय आपकी आँख पर लगभग समानान्तर किरणें आती हैं जिन्हें अधिक रेफ्रेक्शन की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए एक स्वस्थ आँख का लेंस ऐसी स्थिति में स्वत: ही पतला हो जाता है ताकि रेटिना पर एक स्पष्ट तस्वीर प्रोजेक्ट हो सके।

लेकिन समस्या तब आती है जब किसी कारण से आँख का लेंस रेटिना पर शार्प तस्वीर बनाने में असक्षम हो जाता है। इसके बहुत से कारण हो सकते हैं लेकिन सामान्यतया यह लेंस के लचीलपन में कमी या फिर आँख की बॉल का आकार का बड़ा या छोटा होना हो सकता है। जिसके कारण रेटिना पर एक अस्पष्ट या धुंधली सी तस्वीर बनती है और इसे हम नज़र का दोष कहते हैं। मोटे तौर पर ये दोष दो प्रकार के होते हैं- निकटदृष्टिदोष और दूरदृष्टिदोष

निकटदृष्टिदोष (Near/Shortsightedness/Myopia): आँख की बॉल का आकार बड़ा होने या फिर आँख के लेंस की खराबी के कारण शार्प फोकस रेटिना पर ना होकर, उससे थोड़ा पहले होता है, यानी आँख के भीतर बनने वाली इमेज रेटिना की दीवार पर ना बनकर उससे पहले बनती है, या ऐसा कहें कि आँख के लेंस की फोकल लेंथ थोड़ी ‘शार्ट’ पड़ जाती है, जिसके कारण दूर की चीजें धुंधली दिखाई देती हैं। छोटे बच्चों में सामान्तया यही समस्या होती है। इस दोष को ठीक करने के लिए किरणों को बिखेरने की आवश्यकता होती है जिसके लिए आँख के लेंस के आगे एक डाइवर्जिंग (Concave) लेंस लगाया जाता है।

दूरदृष्टिदोष (Far/Longsightedness/Hyperopia): आँख की बॉल का आकार छोटा होने या फिर आँख के लेंस की खराबी के कारण शार्प  फोकस रेटिना पर ना होकर, उससे थोड़ा पीछे होता है यानी आँख के भीतर बनने वाली इमेज रेटिना की दीवार पर ना बनकर उससे पीछे बनती है, या ऐसा कहें कि आँख के लेंस की फोकल लेंथ इतनी ‘लॉन्ग’ पड़ जाती है कि वह रेटिना पर मिल ही नहीं पाती, जिसके कारण पास की चीजें धुंधली दिखाई देती हैं।
 लगभग 40 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों में यह समस्या सामान्य है और इसके कारण बड़ी उम्र के लोगों को पढ़ने में समस्या होने लगती है। इस दोष को ठीक करने के लिए किरणों को केन्द्रित करने की आवश्यकता होती है जिसके लिए आँख के लेंस के आगे एक कनवर्जिंग (Convex) लेंस लगाया जाता है।

नज़र के दोष के अनुसार, आँख के सामने ये जो बाहरी सहायता के रूप डाइवर्जिंग या कनवर्जिंग लेंस लगाए जाते हैं, उन्हें नज़र के चश्मे कहते हैं।

नज़र के चश्मे के संबंध में तीन 
सबसे महत्वपूर्ण बातें जानना आवश्यक हैं-
पहली, नज़र की जाँच सही जाँचकेन्द्र से और सही ढंग से करवाएँ,
दूसरी, यह जरूरी है कि आपका चश्मा एकदम सही पावर (नंबर) का बना हो और
तीसरी, सबसे ज़रूरी बात, आप चश्मे का उपयोग सही ढंग से करें।

अब यह नज़र का चश्मा ‘सही ढंग’ से काम कैसे करता है? इसका क्या अर्थ है?

आपने कई लोगों को यह शिकायत करते सुना होगा कि उन्होंने इतना मँहगा चश्मा भी बनवाया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ… चश्मा लगाने के बाद भी साफ नहीं दिखता। नज़र का चश्मा सही ढंग से तभी काम करेगा जब आप यह समझ लें कि चश्मा काम कैसे करता है और उसके अनुसार ही इसका प्रयोग करें। अन्यथा चश्मा लगाने के बाद भी आपको साफ दिखाई नहीं देगा और आप चश्मे में या चश्मा बनाने वाले में कमी निकालते रहेंगे।

आइए, समझते हैं कि एक चश्मा बनवा लेने के बाद उसे सही ढंग से पहनना कैसे चाहिए, उसे सही ढंग से उपयोग में लाने का तरीका क्या है।

चश्मे को आँख से एकदम सही दूरी पर पहनें:

आँखों की जाँच करवाते समय और चश्मा बनवाते हुए जब आप चश्मे का फ्रेम पसंद कर लेते हैं, उसे अपनी आँख से कितनी दूरी पर आप रखेंगे, यह पहले से ही तय कर लें और चश्मा बनाने वाले को बता दें। जब चश्मा बनकर आ जाए तब यह बेहद आवश्यक है कि आप चश्मे को ठीक उसी दूरी पर पहनें। ज़रा सा भी आगे या पीछे खिसका हुआ चश्मा आपको साफ दिखाने की बजाय धुंधली सी छवि दिखाएगा। सही देखने के लिए आप चश्मे को थोड़ा आगे या पीछे करके व्यवस्थित कर लें और फिर चश्मा हमेशा उसी दूरी पर पहनें।

चश्मा नीचे को झुका हुआ या ऊपर को उठा हुआ ना हो:

कहने का तात्पर्य यह है कि चश्मे का लेंस और आपकी आँख का लेंस परस्पर समानान्तर होने चाहिए। चश्मा ज़रा सा भी ऊपर उठा या नीचे को झुका हुआ होने पर आपको साफ नहीं दिखेगा! यदि आपका चश्मा पुराना हो गया है और इससे अब स्पष्ट नहीं दिख रहा हो तो यह कोई ज़रूरी नहीं कि आपकी आँख का नंबर अब बदल गया है और आपको नए नंबर का चश्मा बनवाना होगा। संभव है कि आपके चश्मे के ग्लास थोड़ा ऊपर या नीचे को मुड़ गए हों। यदि ऐसा हो तो आप अपने चश्मे की डंडियों (temples) सावधानी से व्यवस्थित करके देख सकते हैं।

चश्मा और आपकी आँख एक सीध में होने चाहिए:

अर्थात् चश्मे के लेंस का केन्द्र आपकी आँख के ठीक सामने होना चाहिए। चश्मा ज़रा सा भी ऊपर या नीचे को खिसका हुआ होने पर आपको साफ नहीं दिखेगा! आमतौर पर यह तब होता है जब हम चश्मे को नाक पर थोड़ा से ऊपर या नीचे को खिसका पहनते हैं। या कई दफा चश्मे के ‘नोज़ पैड शूज़’ भी सँकरे या चौड़े होने के कारण चश्मे का लेंस आँख की सीध से खिसक जाता है। ऐसी स्थिति में आपको सही चश्मा होने के बाद भी स्पष्ट नहीं दिखेगा। अत: एक बार फिर अस्पष्ट दिखने की स्थिति में बजाय चश्मा बदलवाने की जल्दी किए एक बार नोज़ पैड्स को व्यवस्थित करके देख लें, हो सकता है चश्मे के लेंस आँखों की सीध में आते ही आपको एकदम साफ-साफ दिखाई देने लगे।

वस्तु, आपकी आँख और चश्मा, तीनों एक सीध में हों:

चश्मा और आँख तो एक सीध में हो गए, अब यह भी बहुत जरूरी है कि जिस चीज को आप देख रहे हैं, वह भी इन दोनों की सीध में हो। यानी कि वस्तु, आपकी आँख और चश्मा, तीनों एक सीध में होने चाहिए। यदि आप चश्मा लगाकर अपना चेहरा व्यक्ति की तरफ घुमाए बिना, तिरछा देखने की कोशिश करेंगे तो आप इस नियम की अवहेलना करेंगे और परिणामस्वरूप आपको उस व्यक्ति का चेहरा धुंधला दिखाई देगा। यदि कोई वस्तु आपकी आँख और चश्मे की एकदम सीध में न हो तो 
वह आपको साफ नहीं दिखेगी। साफ देखने के लिए आपको चेहरे को व्यवस्थित करके (ऊपर को उठाकर या नीचे को झुकाकर या दाएं-बाएं घुमाकर) उसे भी एक सीध में लाना होगा!

अब तक हम एक नज़र के चश्मे के बारे में काफी-कुछ समझ चुके हैं कि कैसे एक दोषपूर्ण आँख को एक सही क्षमता वाला नज़र का चश्मा लगाकर साफ देखने योग्य बनाया जा सकता है, इस चश्मे को सही ढंग से कैसे पहनें आदि।

अब क्या हो यदि आपकी पास की और दूर की दोनों नज़र खराब हो जाएं। इसका उपाय है, दोहरे लेंस वाला या बाइफोकल (BiFocal) चश्मा। इस प्रकार के चश्मों में फ्रेम के ऊपर के हिस्से में दूर देखने के लिए अलग फोकल लेंथ वाला लेंस और निचले हिस्से में पास का देखने के लिए अलग फोकल लेंथ का लेंस होता है। शुरूआत में दोनों लेंसों के मिलने वाली लाइन या ‘टिक्की’ थोड़ा परेशान करती है, लेकिन जल्दी ही इसका अभ्यास हो जाता है।

हालाँकि इस प्रकार के बाइफोकल लेंस इस तरह के दोषों के लिए एकदम कारगर रहते हैं लेकिन कुछ लोगों को इस प्रकार की विभाजन लाइन या टिक्की अपने ग्लास पर अच्छी नहीं लगती। फिर आजकल बहुत से लोग डेस्कटॉप कम्प्यूटर या लैपटॉप पर भी काफी काम करते हैं जिन्हें दूर की और एकदम पास के अलावा, पास से थोड़ा सा दूर (कम्प्यूटर स्क्रीन जितना) देखने की भी आवश्यकता होती है। बाइफोकल चश्मे इस ‘इंटरमीडिएट डिस्टेंस’ को स्पष्ट दिखाने में सक्षम नहीं होते। इसके लिए तीन फोकल लेंथ वाले ‘प्रोग्रेसिव’ चश्मे काम में लिए जाते हैं। प्रोग्रेसिव चश्मों के ग्लास में ऊपर से दूर देखने लिए अलग फोकल लेंथ वाला लेंस, निचले हिस्से में पास का देखने के लिए अलग फोकल लेंथ का और बीच में ‘इंटरमीडिएट डिस्टेंस’ जैसे कम्प्यूटर आदि पर काम करने के लिए आवश्यक फोकल लेंथ वाला लेंस होता है। इनकी खूबी यह होती है कि इनमें किसी तरह की लाइन या ‘टिक्की’ दिखाई नहीं देती।

सुनने में प्रोग्रेसिव ग्लास वाले चश्मा बनाना आसान लगता है लेकिन वास्तव में इसे बनाने में ऑप्टिक्स के सिद्धान्तों 
की अपनी अड़चनें होती हैं। इसीलिए व्यवहारिक रूप में फ्रेम का पूरा ग्लास आपको साफ दिखाने में सक्षम नहीं रहता।
इसके कुछ विशेष हिस्से ही आपको साफ दिखा सकते हैं जबकि इनका काफी हिस्सा आपको धुंधली या टेढ़ी-मेढ़ी (Distorted) चीजें दिखाता है। इसलिए आपको शुरुआत में दो से तीन सप्ताह तक अलग-अलग दूरी की चीजों को 
इन तीनों में से उपयुक्त हिस्से में से देखने का अभ्यास करना पड़ता है।

ध्यान रहे कि यह दो-तीन सप्ताह का अभ्यास करना बहुत आवश्यक है ताकि आपकी आँखें इस चश्मे के विभिन्न लेंस वाले हिस्से को काम में लेकर देखने की अभ्यस्त हो जाएं। बिना इस अभ्यास के आपको चश्मा सही परिणाम नहीं देगा और आपको बहुत असहजता होगी। ऐसे में कई बार यह भी विचार आता है कि शायद चश्मा सही नहीं बना है, लेकिन दो-चार सप्ताह के अभ्यास के बाद आप इस चश्मे से संतुष्ट रहेंगे और बिना किसी परेशानी के आप हर दूरी की चीजें एकदम साफ देख सकेंगे।

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